इस आपातकाल ने इतना तोड़ा आज तक खड़ा न हो सका
-ललित मिश्र-
नोएडा। पिछले करीब 50 वर्षों से यह 25 जून आपातकाल का समय हृदय को झकझोर कर चला जाता है। 50 वर्ष पहले टूटे एवं बिखरे हालातों से आज भी संभल नहीं सके हैं। मेहनत, ईमानदारी, निष्ठा, लगन, राष्ट्रभक्ति यह शब्द बोलने और लिखने में तो अच्छे लगते हैं लेकिन इसकी अब कद्र करता कौन है। इसी आपातकाल ने मेरा एक बड़ा भाई छीना और यह दो वर्ष इतना दर्द देकर गये कि उसके जख्म आज भी भरे नहीं है। अभी संभाले भी नहीं थे तब तक 1992 राम मंदिर प्रकरण भी परिवार को मुसीबत बन गया।
भाई को निगल गया था आपातकाल
आपातकाल का यह 25 जून हमारे परिवार को हमेशा पीड़ा देता चला आया है। मैं जब महज लगभग 7 वर्ष का था तब से यह धुंधली यादें मेरे जीवन में सदैव कष्ट देती चली आ रही है। सन 1975 में हमारे पूज्य पिताजी स्वर्गीय प्रोफेसर ओम प्रकाश मिश्र एवं सबसे बड़े भाई संजय मिश्र जो अभिमन्यु शाखा फिरोजाबाद के मुख्य शिक्षक थे उन्हें पुलिस देशद्रोही मानकर गिरफ्तार करना चाहती थी। इसी दौरान वह घर छोड़कर फरार चल रहे थे। वैसे तो इससे बड़ी क्या पीड़ा हो सकती है जिसके मन में देशभक्ति कूट-कूट कर भारी हो उसे ही देश की सरकार देशद्रोही मानकर सजा देना चाहती हो, किंतु तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने स्वयंसेवकों को जो पीड़ा देने का काम किया उसके दर्द से आज भी हृदय कांप उठता है। पिता और बड़े भाई भूमिगत रहे, पिता का वेतन रोक दिया गया, मां अखबार के कागजों को जलाकर जैसे तैसे हमें तो भोजन करा देती थी वह खाती थी या नहीं हमारी आयु कम थी और समझ भी कम रही होगी हमें उन्होंने कभी महसूस ही नहीं होने दिया, लेकिन मां अक्सर भूखा सोया करती थी। पिता एवं बड़े भाई की छत्रछाया रहित हमारे जीवन में मनोरंजन का साधन जिसे आजकल हम स्विमिंग पूल बोलते हैं उस दौरान होदिया में नहा कर हम आनंद लेते थे। जून 1976 में हम भाइयों के साथ दोपहर में पड़ौस में रहने वाली अपनी बहन शोभा दीदी के यहां होदिया में अक्सर नहाया करते थे। इसी दौरान मेरे बड़े भाई नगेंद्र मिश्र कुछ ज्यादा देर तक नहाते रहे, शाम को उन्हें बुखार आ गया, देर रात करीब 2 बजे बुखार इतना तेज हो गया की बड़े भाई ने उपचार के अभाव में दम तोड़ दिया। घर के दोनों मुखिया फरार चल रहे थे। मां ने जैसे तैसे सूचना पिता और भाई के पास तक पहुंचाई। पिताजी ने पड़ोसियों की मदद से भाई के अंतिम संस्कार की व्यवस्था की।
दीवार कूदते समय पिता का टूटा पैर
पिताजी आपातकाल के दर्द का मुकाबला कर ही रहे थे कुछ समय बाद 1992 में राम मंदिर प्रकरण के दौरान फिर सरकार ने पुलिस के जरिए पूज्य पिताजी को गिरफ्तार कर लिया और लंबे समय तक वह जेल में रहे। पुलिस से बचने के लिए जब उन्होंने प्रयास किया तो इसी दौरान दीवार कूदते समय उनका पैर निकट में लगे हैंडपंप पर पड़ गया जिसमें उनका पैर टूट गया। इस दौरान 1 वर्ष तक वह चलने फिरने में असमर्थ रहे। हमारे परिवार के जीवन यापन का एकमात्र जरिया हमारे पूज्य पिताजी ही थे, जो पूरे परिवार एवं समाज को संभाल कर रखते थे। हमारे पिताजी बहुत सामाजिक एवं एक कुशल शिक्षक के रूप में पहचाने जाते थे। मेरे जीवन में वह ऐसे एक मात्र शिक्षक थे जिन्होंने कभी ट्यूशन का छात्रों से एक पैसा भी नहीं लिया।
संभलने में पूरी पीढ़ी को खपाना पड़ता है
समय ने गति पकड़ी पिता पर घर की जिम्मेदारियां का बोझ आया जैसे तैसे बहन और बड़े भाई की शादी की और जीवन की आय का पूरा धन इन जिम्मेदारियों पर व्यय हुआ। धन अभाव के कारण हम छोटे भरईयों की शिक्षा प्रभावित होने लगी। पिताजी सेवानिवृत हुए किसी भाई के पास कोई रोजगार का साधन नहीं था जैसे तैसे सभी भाइयों ने थोडी-थोडी जिम्मेदारी संभाली और जैसे तैसे घर की व्यवस्थाओं को संभाला। आज 50 वर्ष बाद यह महसूस होता है कि परिवार एवं आर्थिक रूप से यदि व्यक्ति एक बार टूट जाए तो संभलने में उसे एक पूरी पीढ़ी को खपाना पड़ता है।
हैरानी और बेचौनी तो अब होती है
आपातकाल का वह मनहूस समय किसी तरीके से परिवार ने गुजार दिया। मेरा पुत्र चौथी पीढ़ी का स्वयंसेवक है। सेवा भाव संस्कारों में विद्यमान है। यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है। हैरानी, बेचौनी, परेशानी यहां अब होती है जब ऐसे स्वयंसेवकों की आज का सामर्थवान नेतृत्व उसकी कोई कद्र अथवा परवाह नहीं करता है। वैसे तो कोई भी स्वयंसेवक के महत्वाकांक्षी नहीं होता है, किंतु राजनीति में आए अपने ही स्वयंसेवक भाइयों से यदि वह कोई अपेक्षा करता है तो उस पर खरा उतरना चाहिए। राजनीति में शामिल हुए स्वयंसेवकों अथवा जनप्रतिनिधियों ने कांग्रेस नेताओं वाले आचरण को धारण कर रखा है। इस आपातकाल की 50वीं गंदी याद को तजा करते हुए भाजपा के वर्तमान नेताओं में कांग्रेसी आचरण को खत्म करने की उम्मीद महसूस करता हूं। वर्तमान आचरण से हैरानी और बेचौनी होती है। पिछले 11 वर्षो की अब में क्या बोलूं और क्या लिखूं किंतु कुंठित बहुत हूं।
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